कहानी कोहिनूर की: जानिए कैसे भारत से निकलकर ब्रिटेन की रानी के मुकुट तक पहुंचा

कोह-ए-नूर या कोहिनूर जिसका मतलब है रोशनी का पहाड़. 29 मार्च 1849 को पंजाब की गद्दी पर बैठे एक दस बर्ष के बालक से ईस्ट इंडिया कंपनी एक संधी करती है. इस संधी में कोहिनूर को सौंपने की बात थी. यह कोहिनूर की आखिरी और अहम यात्रा थी, क्योंकि इसके बाद कोहिनूर ईस्ट इंडिया कंपनी के डायरेक्टरों के हाथों से होता हुआ ब्रिटिश राजपरिवार तक पहुंचा और फिर उन्हीं की संपत्ती होकर रह गया.

 कोहिनूर जितना खूबसूरत है और बेशकीमती है, उतने ही श्राप उसके साथ जुड़े हुए हैं. लेकिन, इस हीरे की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है और इस हीरे का इतिहास सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि मौजूदा दौर के पाकिस्तान, तालिबान, ईरान और अफगानिस्तान के साथ भी है.

कहां से आया कोहिनूर

माना जाता है कि कोहिनूर विजयनगर साम्राज्य की सीमाओं के अंदर पाया गया था. कई इतिहासकारों का मानना है कि भारत के आंध्रप्रदेश राज्य के गुंटूर जिले में स्थित गोलकुंडा में कृष्णा नदी के किनारे हीरों की खदान से कोहिनूर आया था. लेकिन अधिकारिक तौर पर कोई जानकारी नहीं है.

 इतिहास में सबसे पहले फारसी इतिहासकार मोहम्मद काज़िम मर्वी ने 1739 में नादिर शाह के भारत के आक्रमण के दौरान इस हीरे का जिक्र किया है और तब ही इसना नाम कोहिनूर पड़ा था.

कोहिनूर का सफर

कई इतिहासकारों का मानना है कोहिनूर 12वीं शताब्दी में काकतीय साम्राज्य के पास था. वारंगल में एक मंदिर में कोहिनूर था. यह एक हिंदू देवता की आंख के तौर पर था. साल 1301 में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मालिक काफूर ने इसे लूट लिया और खिलजी को भेंट कर दिया.

 जबकि कई इतिहासकारों का मानना है कि कोहिनूर 1304 के आसपास मालवा के राजा महलाक देव की संपत्ति में शामिल था.

 कोहिनूर को लेकर एक थ्योरी यह भी है कि गयासुद्दीन तुगलक के बेटे उलूग खां ने 1323 में काकतीय वंश के राजा प्रताप रुद्रदेव को युद्ध में हराकर कोहिनूर जीता था.  इसमें से कौन सी बात सही है, यह अधिकारिक तौर पर नहीं कहा जा सकता है.

 इसके बाद कोहिनूर का जिक्र बाबरनामा में मिलता है. बाबरनामा के मुताबिक, इब्राहिम लोधी को युद्ध में हराने के बाद हुमायूं ने ग्वालियर के राजा बिक्रमजीत व उनके परिवार को बंदी बनाया था. उन्होंने हुमायूं को अपनी मर्जी से ढेर सारा खजाना और कई कीमती जवाहरात दिए थे.यह हीरा उन्हीं में से एक था. उस दौरान इसे ‘बाबर का हीर’ कहा गया. ‘बाबर का हीर’ वजन में 35 ग्राम था और माना गया था यह हीरा अलाउद्दीन खलजी द्वारा भारत लागाय गया था. अब इसकी कोई जानकारी नहीं है कि यह हीरा खलजी के हाथों से बिक्रमजीत तक कैसे पहुंचा. लेकिन माना जाता है कि ‘बाबर का हीरा’ ही कोहिनूर था. क्योंकि दोनो का वजन एक सा था और दोनों की विशेषताएं मिलती जुतली हैं.

 इसके बाद इस हीरे ने हुमायूं के साथ सफर किया. कहा जाता है कि हुमायूं जब भारत से गया था को अपने साथ कोहिनूर लेकर गया था. अनिता आनंद और विलियम डेलरिंपल की किताब कोहिनूर- दुनिया के सबसे मशहूर हीरे की कहानी के अनुसार, आगरा से निकाले जाने के बाद हुमायूं जब 1544 में फारसी सम्राट शाद तहमस्य के पास गया तो उसने यह हीरे उन्हें भेंट दिए.

 किताब में जिक्र है कि इसके बाद 1547 में शाह ने हिन्दुस्तानी शिया मित्र, दक्कन के शासक और अहमदनगर के सुल्तान के पास ‘बाबर के हीरे’ को अपने दूत मिहतर जमाल के जरिए भिजवाया था, लेकिन वह हीरा उन्हें नहीं मिला.

 इसके बाद कोहिनूर या ‘बाबर के हीरे’ का जिक्र नहीं मिलता है. माना जाता है शांहजहां ने साल 1628 में जिस त़ख्त-ए-ताउस को बनवाने का आदेश दिया था, उसमें यह हीरा था, लेकिन पुख्ता तौर पर इसकी कोई जानकारी है नहीं कि यह हीरा मुगल खजाने तक कैसे पहुंचा.

 इसके बाद 1739 में कोहिनूर को उसका नाम मिला. दरअसल, नादिर शाह जब 16 मई को दिल्ली से चला था तो उसके साथ मुगलों की आठ पीढ़ियों की अकूत संपत्ति थी, जिसमें तख्त-ए-ताउस भी था और कोहिनूर भी. नादिर शाह ने 57 दिनों तक दिल्ली में लूटपाट और कत्लेआम मचाया था. नादिर शाह ने जो खजाना लूटा था उसे 700 हाथियों, 4 हजार ऊंटों और 12 हजार घोड़ों से खींची जा रही गाड़ियों पर लादा गया था.

 नादिर शाह के कत्ल से पहले तक यह हीरा उसके पास ही रहा. लेकिन जब नादिर का कत्ल हुआ और उसका खजाना लूटा जाने लगा तो नादिर शाह की बेगम ने यह हीरा अहमद खान अब्दाली को दे दिया. अहमद खान अब्दाली नादिर का एक वफादार अफगानी सैनिक था.

 अहमद खान अब्दाली बाद में चलकर अफगानी वंशों का मुखिया बना. कोहिनूर इसके बाद दुर्रानियों के पास कई सालों तक रहा. इसके बाद अब्दाली के वंशज शुजा शाह से पंजाब के सिख महाराज रणजीत सिंह तक यह कोहिनूर पहुंचा.

 महाराज रणजीत सिंह को कोहिनूर से बेपनांह मोहब्बत थी. महाराज रणजीत सिंह ने कोहिनूर को किसी अन्य मालिक की तुलना में सर्वाधिक पहना. महाराज दिवाली दशहरा और सभी त्योहारों पर इसे पहनते थे और जब नहीं पहनते थे को इसे कड़ी सुरक्षा के बीच रखा जाता था. रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद यह हीरा उनके बेटे दिलीप तक पहुंचा, लेकिन बाद में लाहौर संधी की शर्त के अनुसार, हीरा ईस्ट इंडिया कंपनी और उसके बाद ब्रिटेन के राजपरिवार के पास चला गया.

हीरे का श्राप

 कोहिनूर जिसके पास रहा, उन्हें बेहद कष्ट झेलना पड़ा. इसके कई मालिकों को अंधा कर दिया. उन्हें दर्दनाक मौत मिली. कोहिनूर के एक मालिक की खोपड़ी में सीसा पिघला कर डाला गया. यह हीरा इंग्लैंड जिस जहाज से लेकर ले जाया जा रहा था, वो बाल—बाल डूबने से बचा था. मेदेआ नाम के इस जहाज में हैजे की महामारी फैल गई थी और इसके कई नाविक अपना सफर पूरा नहीं कर पाए थे. कहा जाता है कि कोहिनूर किसी स्त्री पर कोई असर नहीं दिखाता, लेकिन श्राप के कारण अगर कोई पुरूष इसको धारण करता है तो वह बर्बाद हो जाता है.

 कोहिनूर के साथ एक खास बात और है. इसे जिस भी व्यक्ति ने धारण किया या फिर यह जिसके पास भी रहा, उसने ऊचाईंया भी देखी और पतन भी.


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Mohit Jha

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